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कविता

औचक

ब्रजेंद्र त्रिपाठी


जो भी मिला
औचक ही मिला
औचक मिला
सांध्य छाया में
सुदूर टिमटिमाता एक तारा
बताने लगा -
नक्षत्रों के अनगिन रहस्य
ले गया अपने साथ
आकाशगंगाओं के झिलमिल रहस्यलोक में

पैरों के आगे
वैसे ही पसरी पड़ी थी
वनप्रांतर की पगडंडी
वैसे ही पार्श्व में खड़े थे
ऊँचे-ऊँचे देवदारु
दूर धुँधली-सी दिखाई पड़ रही थी
जल रेखा
पर मैं नहीं था वहाँ
मैं था - सुदूर टिमटिमाते
तारे की स्नेहार्द्र दृष्टि में
अंधकार और प्रकाश के
आकुल आलिंगन में
आकाशगंगाओं में
झिलमिल रहस्यलोक में।

औचक मिली
वह छोटी-सी गौरेया
एक दिन सुबह-सुबह
उसकी चहचह से
गुंजरित हो रहा था
इस महानगर का
मेरा छोटा-सा कमरा
कितने दिनों बाद अचानक
सुनी गौरैया की बोली
एक आलोक से भरती
पूरे परिवेश को


2 .

ले गई मेरा हाथ पकड़े
माँ के पास
माँ वैसे ही चाउर बीन रही थी
और बीच-बीच में
थोड़े से दाने फेंक रही थी
गौरेयों की ओर
इससे बेखबर कि
दुनिया कितनी बदल गई है
सारे मूल्य
कितने अर्थहीन हो चुके हैं
लेकिन मैं जानता हूँ
कि ऐसे ही माँ अनंतकाल तक
चाउर बीनती हुई
कुछ दाने गौरेयों की ओर फेंकती रहेगी
और इस तरह दर्ज कराती रहेगी
अपना विरोध।

और
औचक मिला
तुम्हारा प्यार
बिना मेरे जाने, पूरी तरह
मुझे बदलता हुआ।
तुम्हारी तरल पारदर्शी दृष्टि
एकाएक चेहरे पर खिल जाने वाली मुस्कान
कभी भावावेग में
छलक पड़ने को आतुर आँखें
वन के सन्नाटे-सी
चेहरे पर पसरी एक अम्लान छाया
और कभी
मुझे सर्वांग जकड़ लेने को आकुल
तुम्हारी उदग्र बाँहें
होंठों पर अपनी छाप अंकित करने को
कँपकँपाते होंठ
तुम्हारा रूठना, मनना, मनाना
तुम्हारे प्यार के
कितने धूपछाँहीं रंग हैं!

जानता हूँ, सहज नहीं
औचक ही मिलेगा
जो भी मिलेगा


3 .

सांध्य छाया में
सुदूर टिमटिमाता एक तारा
महानगर के मेरे छोटे से कमरे में
चहचहाती गौरेया
और तुम्हारा
धूपछाँही प्यार।

 


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